Saturday, September 2, 2017

बिहारः क्यों टूट के दरवाजे पर खड़ी है कांग्रेस

कांग्रेस की प्रेस कांफ्रेंस (साभार फाइल फोटो)
बिहार में नीतीश कुमार महागठबंधन से अलग क्या हुए, महागठबंधन का कुनबा ही बिखर गया लगता है. एक तरफ लालू जहां अपने जनाधार को बचाए रखने की कसरत कर रहे हैं तो दूसरी तरफ कांग्रेस टूट के कगार पर पहुंच चुकी है. चर्चा है कि 27 में से 14 विधायकों ने बगावत कर दी है. वे जदयू में शामिल होने की तैयारी में हैं. लेकिन दल बदल कानून के तहत एक साथ 18 विधायकों के टूटने के बाद ही उन्हें मान्यता मिल सकती है. ऐसे में उन्हें चार अन्य विधायकों के अपने पाले में आने का इंतजार है. उधर, अंदरखाने में पक रही इस खिचड़ी से केंद्रीय नेतृत्व सकते में है. उसने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चौधरी और विधायक दल के नेता सदानंद सिंह को दिल्ली तलब कर कई निर्देश दिए हैं. राजनीतिक जानकार यह मानते हैं कि देर-सबेर कांग्रेस का यह हश्र होना ही था. कांग्रेस की टूट के क्या हैं मायने, किसकी है यह रणनीति और बिहार में क्या होंगे इसके राजनीतिक परिणाम, आइए इस विश्लेषण में जानते हैं.

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी (साभार फाइल फोटो)
बिहार में कांग्रेस के टूटने के मायने बड़े हैं. सबसे पहला कारण तो सत्ता सुख का अचानक हाथ से फिसल जाना है. वर्षों बाद कांग्रेस बिहार में सत्ता में आई थी. उसके कई विधायक मंत्री बने थे. जो नहीं बन पाए थे वे बोर्ड-निगमों में पहुंचाए गए थे. अब भी जो बचे थे, उन्हें यह उम्मीद थी कि जल्द ही उन्हें भी पद मिलेंगे. लेकिन नीतीश कुमार ने महज 20 महीने बाद ही महागठबंधन को अलविदा कह सबके अरमानों पर पानी फेर दिया. अब ऐसे लोगों में असंतोष है. दूसरी वजह, इन विधायकों को अभी से यह चिंता सता रही है कि वे अगले चुनाव में जनता के सामने क्या मुद्दे लेकर जाएंगे. पिछली बार तो उनके साथ नीतीश कुमार की स्वच्छ छवि थी. लेकिन इस बार वे लालू की दागदार छवि के साथ कैसे जाएंगे. दूसरा इनमें ज्यादार सवर्ण विधायक हैं जो यह जानते हैं कि लालू एक बार फिर से यादवों को तवज्जो दे रहे हैं. ऐसे में उनके परंपरागत वोटर उनका साथ नहीं देंगे. बिहार में कांग्रेस का टूटना भाजपा की कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की रणनीति की सफलता भी है. वह कई राज्यों में ऐसा कर चुकी है. उसने नीतीश को पाले में कर एक ही तीर से कई निशाने साधे हैं. उसे मालूम है कि बिहार में लालू को राजनीतिक अवसान तक पहुंचाना है तो उनका साथ दे रहे सभी लोगों को एक-एक कर तोड़ना पड़ेगा. वह अपनी रणनीति में सफल होती जा रही है.

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी (साभार फाइल फोटो)
बिहार में कांग्रेस का टूट की तरफ जाना न सिर्फ बिहार बल्कि देश में भी उसके अवसान की तरफ इशारा करता है. अगर यह टूट हुई तो उत्तर प्रदेश के बाद देश के दूसरे बड़े महत्वपूर्ण राज्य बिहार में उसका वजूद लगभग समाप्त हो जाएगा. यह उसके लिए चिंता की बात है. दरअसल, कांग्रेस ने बिहार को हमेशा अपनी जागीर समझा है. उसने सूबे पर सबसे ज्यादा समय तक शासन किया है. लेकिन जनता की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने दिल्ली में बैठकर कभी बिहार की जनता की नब्ज टटोलने की कोशिश नहीं की. आजादी से लेकर अब तक उसने बिहार में संगठन से लेकर सत्ता तक कुछ चुनिंदा नेताओं के भरोसे ही संभाला है. ये नेता दिल्ली की गणेश परिक्रमा के भरोसे मजबूत बने रहे. इन्होंने दूसरी और तीसरी पीढ़ी के नेताओं को कभी पनपने ही नहीं दिया. यही वजह रही कि कांग्रेस का जनाधार बिहार से धीरे-धीरे सिमटने लगा. लालू से लेकर नीतीश और बाद में काफी हद तक भाजपा ने कांग्रेस के कैडर वोट पर अपना कब्जा जमा लिया. उसके बाद कांग्रेस दूसरों के कंधे पर बैठकर सत्ता में आने की रणनीति पर काम करने लगी. उसने लालू से हाथ मिलाया. इसका परिणाम हुआ कि लालू ने एमवाइ समीकरण गढ़कर कांग्रेस के लगभग समूचे वोट बैंक पर कब्जा जमा लिया. कांग्रेस फिर भी नहीं सुधरी. उसकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी के नेता लगातार जनाधार बढ़ाने की कवायद करते रहे. लेकिन गणेश परिक्रमा कर महत्वूर्ण पदों पर जमे रहने और सभी महत्वपूर्ण फैसले करने वाले नेता सारी कवायद पर पानी फेरते रहे. वे अब भी यही कर रहे हैं. बस यही कारण है कि जनता के बाद कार्यकर्ताओं का भी कांग्रेस से मोहभंग होता जा रहा है.

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