Monday, May 1, 2017

द लास्ट मुगल- दरभंगा राज में जलता रहा मुगल सल्तनत का आखिरी चिराग

दरभंगा के दिग्घी तालाब के किनारे जुबैरुद्दीन गोगरन की मजार
1857 का विद्रोह असफल हो गया था। मुगल सल्तनत के आखिरी शहंशाह बहादुरशाह जफर कैद कर लिए गए थे। अंग्रेजों ने उनके बेटों का सिर काटकर थाली में उनके सामने पेश किया। शायर दिल शहंशाह जीते जी मर गए। वह अपने सबसे बड़े पोते जुबैरुद्दीन गोगरन को शहजादा घोषित करना चाहते थे। उसके बाद जुबैरुद्दीन हिंदुस्तान के शहंशाह होते। लेकिन अब सिंहासन जा चुका था। जुबैरुद्दीन को तिल-तिलकर मरने के लिए अंग्रेजों ने दिल्ली से तड़ीपार कर दिया। हुक्म यह भी था कि वह हिंदुस्तान में तीन साल से ज्यादा किसी एक जगह नहीं रह सकते थे। मुगल साम्राज्य का वह आखिरी चिराग खानाबदोश जिंदगी जीने लगा। कुछ ही सालों के बाद काशी में जुबैरुद्दीन की मुलाकात दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह से हुई। जब महाराजा से उनका परिचय हुआ तो महाराजा सम्मान में उठ खड़े हुए। लक्ष्मेश्वर सिंह के लिए जुबैरुद्दीन आदरणीय थे। राज दरभंगा उन्हीं के पूर्वज बादशाह अकबर ने दान में दिया था।

जुबैरुद्दीन  और उनके परिवार की मजार
जुबैरुद्दीन का काशी में तीन साल का पड़ाव पूरा हो चुका था और वह आगे कहां ठांव पाएंगे इसकी चिंता उन्हें सता रही थी। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह उन्हें अपने साथ दरभंगा ले आए।  उन्हें राज अतिथि का दर्जा दिया गया। उनके लिए भत्ते और नौकर-चाकरों की व्यवस्था की गई। अंग्रेजों ने इसका विरोध किया। महाराजाधिराज की उपाधि वापस लेने की धमकी दी गई। लेकिन महाराजा अपने वचन पर अटल थे। उन्होंने कहा- जिसने राज दिया अगर वही नहीं रहेगा तो यह राज कैसा। आखिरकार महाराजा ने अंग्रेजों को मनाकर जुबैरुद्दीन को राज अतिथि बनवा ही लिया। इतना ही नहीं तीन साल से ज्यादा समय तक एक जगह नहीं रहने का आदेश भी रद करवा दिया। उसके बाद जुबैरुद्दीन दरभंगा के होकर रह गए।

जुबैरुद्दीन की लिखी किताब मौज-ए-सुल्तानी
जुबैरुद्दीन अपने दादा बहादुरशाह जफर की तरह की लेखन में रुचि रखते थे। दरभंगा में रहने के दौरान उन्होंने एेतिहासिक किताब मौज-ए-सुल्तानी लिखी। इस किताब में उस समय के तिरहुत और वहां की शासन व्यवस्था का वर्णन है।  आतिश -ए - पिन्हां ' के लेखक मुश्ताक अहमद की माने तो महाराजा का  हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में काफी असर था। जान की सुरक्षा से निश्चिंत हो जुबैरुद्दीन ने जीवन के बाकी की जिंदगी किताबें लिखते हुए बिताई। दरभंगा में रहकर उन्होंने तीन किताबें लिखीं। उनकी लिखी ' चमनिस्तान - ए - सुखन ' कविता संग्रह है। जबकि ' मशनबी दूर -ए - सहसबार ' महाकाव्य है। जुबैरुद्दीन की तीसरी रचना ' मौज - ए - सुल्तानी ' है। इसमें देश की विभिन्न रियासतों की शासन व्यवस्था का जिक्र है। खास बात ये है कि महाकाव्य ' मशनबी दूर -ए - सहसबार ' में राज दरभंगा और मिथिला की संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से बताया गया है। 

जुबैरुद्दीन की किताब मौजे-ए-सुल्तानी
राज परिवार की अंतिम महारानी के द्वारा संचालित कल्याणी फाउंडेशन की ओर से ''मौज -ए -सुल्तानी ' को प्रकाशित कराया गया है। फाउंडेशन के लाइब्रेरियन पारस के मुताबिक़ मौज-ए-सुल्तानी की मूल प्रतियों में से एक राज परिवार के पास है। मुश्ताक अहमद भी इसकी पुष्टि करते हैं। उनके अनुसार ये प्रति कुमार शुभेश्वर सिंह की लाइब्रेरी में उन्होंने देखी थी। वे दावा करते हैं कि इस प्रति में जुबैरुद्दीन का मूल हस्ताक्षर भी है। विलियम डलरिंपल अपनी किताब में दारा बखत की बार-बार चर्चा करते हैं जबकि जुबैरुद्दीन पर वे मौन हैं। उधर लाला श्रीराम अपनी किताब 'खुम - खान ए - जाबेद ' में बहादुरशाह की वंशावली का जिक्र करते हैं। इस किताब में दावा किया गया है कि जुबैरुद्दीन ही बहादुरशाह के वारिस थे। असल में बहादुरशाह के सबसे बड़े बेटे दारा बखत 1857 के विद्रोह से पहले ही मर गए थे।  सिपाही विद्रोह के बाद सब कुछ बदल गया। बहादुरशाह के पांच बेटों को अंग्रेजों ने दिल्ली के खूनी दरवाजे के निकट बेरहमी से मार दिया।

महाराजाधिराज लक्ष्मेश्वर सिंह ने दरभंगा के काजी मुहल्ले में जुबैरुद्उदीन के लिए घर बनवा दिया। काजी मोहल्ला ही आज का कटहलबाड़ी है। जुबैर के लिए मस्जिद भी बना दी गई।  बदकिस्मती ने उनका साथ नहीं छोड़ा। जुबैरुद्दीन के दो बेटों की मौत हैजा से हो गई। ये साल 1902 की बात है। इसी साल ग़मगीन उनकी पत्नी भी दुनिया छोड़ गईं। जुबैरुद्दीन का इंतकाल 1910 में हुआ। उनका अंतिम संस्कार दिग्घी लेक के किनारे किया गया। राज परिवार की तरफ से 1914 में उस जगह पर एक मजार बनवाई गई। रेड सैंड स्टोन से बनी ये मजार जर्जर हालत में है। दीवारों पर लगे खूबसूरत झरोखे कई जगह से टूट गए हैं। मजार के अंदर कंटीली घास उग आई है। इसके अंदर जाने वाली सीढ़ी खस्ताहाल है। दरवाजे पर बना आर्क भी दरकने लगा है। राज दरभंगा पर कई शोध कर चुके आशीष झा और कुमुद सिंह इस मजार को बचाने का अभियान चला रहे हैं। उनके अनुसार अगर मजार को बचाकर उस स्थान का सौंदर्यीकरण कराया जाए तो यह देश का  महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल होगा। लोग मुगल वंश के आखिरी चिराग को नमन करने दरभंगा आएंगे। 

7 comments:

  1. विजय जी, आपने अनसुनी/अनदेखी कहानी से परिचय कराया, आपका धन्यवाद.

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    1. हां, ये इतिहास का मार्मिक अंश है जो ढका हुआ है।

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  2. बहूत अच्छे विजय जी आपकी वजह से ये इतिहास जानने का सौभाग्य हुआ।

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  3. आज आपके लेख से इतिहास को जिसे मै स्वंग इतिहास का छात्र होते हुऐ कभी नही पढ़ा लेकिन आपने अनछुए पहलू से रूबरू कराया इसके लिए तहेदिल से धन्यबाद।

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  4. आपका आभार राजन जी

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