Friday, February 24, 2017

नीतीश को बिहार से बाहर करने की तैयारी में लालू !

नीतीश कुमार, लालू प्रसाद व तेजस्वी प्रसाद यादव (चित्र साभार)

राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद व उनकी पत्नी राबड़ी देवी की, अपने पुत्र व बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी प्रसाद यादव को, जल्द से जल्द सीएम की कुर्सी पर बैठे देखने की इच्छा बलवती हो गई है। पिछले दो दिनों में आए राबड़ी देवी के बयान, उस पर जदयू नेताओं का पलटवार और तेजस्वी व खुद राबड़ी की नपी-तुली सफाई ने बिहार की बदलती राजनीतिक स्थिति के स्पष्ट संकेत दे दिए हैं। सामान्य आदमी भले ही समझे कि यह मां-बाप की स्वाभाविक इच्छा होगी, लेकिन जानकारों ने इसे लालू एंड फैमिली की सोची-समझी रणनीति करार दिया है। देश में बन रहे नए राजनीतिक समीकरण और नीतीश के बदलते मिजाज को देखते हुए लालू ने भी कार्यकर्ताओं व अपने मतदाताओं के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करने की रणनीति के तहत कदम बढ़ाने शुरू कर दिए हैं। आइए जानते हैं कि लालू एंड फैमिली के बिहार के सीएम की कुर्सी को लेकर छोड़े गए नए शिगूफे के क्या हैं राजनीतिक मायने।


वर्षों तक बिहार की सत्ता से बेदखल लालू ने अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने की खातिर नीतीश कुमार व कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया था। लोकसभा चुनाव के बाद जब पूरा बिहार और देश भाजपा के तिलस्म में फंसा था तब नीतीश कुमार को अपना राजनीतिक वजूद बचाने की चिंता थी। उधर, दिल्ली की सत्ता से बेदखल कांग्रेस को भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी थी। इस स्थिति में नीतीश ने अपने 17 साल पुराने ‘दुश्मन’ लालू व जिसकी नीतियों के खिलाफ बोल-बोलकर सत्ता में आए थे, उस कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। उधर, महज डेढ़ साल में केंद्र की भाजपा सरकार के तिलस्म से निकल चुके लोगों ने विधानसभा चुनाव में इस महागठबंधन पर मुहर लगा दी। हालांकि यह भी कहा जाता है कि महागठबंधन की जीत में जातीय गोलबंदी का बड़ा योगदान रहा।

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बिहार में महागठबंधन अवसर का बेमेल राजनीतिक गठजोड़ था। इससे तात्कालिक तौर पर नीतीश, लालू व कांग्रेस तीनों को संजीवनी भले ही मिल गई थी, लेकिन तीनों की महत्वाकांक्षाएं बिल्कुल अलग-अलग थीं। इनके सबसे बड़े प्रतिद्वंदी भाजपा का जब बिहार से पत्ता कट गया तो इन्हें अपनी अलग-अलग महत्वाकांक्षाएं याद आने लगीं। सरकार बनने के पहले ही लालू ने यह संकेत दे दिया कि नीतीश राष्ट्रीय राजनीति करेंगे और बेटों की सहायता से वे खुद बिहार संभालेंगे। मतलब साफ था कि उनके बेटे भविष्य में बिहार की सर्वोच्च सत्ता संभालेंगे। उधर, नीतीश के सामने लालू की उस शासन-प्रशासन की शैली से निपटने की चुनौती थी, जिसे वे भाजपा के साथ मिलकर जंगलराज बताते आए थे। नीतीश महागठबंधन में रहते हुए भी अपनी स्वच्छ व राष्ट्रीय छवि गढ़ने की इच्छा रखते थे। सो, उन्होंने जदयू को लेकर अकेले ये कोशिशें शुरू कर दीं। नीतीश जदयू की ओर से भविष्य के पीएम बताए जाने लगे। इस पर कांग्रेस ने भी अपनी प्रतिक्रिया देते हुए राहुल गांधी के अलावा किसी को देश का पीएम प्रत्याशी मानने से इन्कार कर दिया। यह वह दौर था जब महागठबंधन के तीनों सहयोगी अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा को लेकर आगे बढ़ने लगे थे। हालांकि तीनों सत्ता गंवाकर अलग-अलग चलने जैसा कदम नहीं उठाना चाहते थे।

महागठबंधन सरकार आने के बाद सूबे के अपराध के ग्राफ में जबर्दस्त उछाल, शहाबुद्दीन को हाईकोर्ट से मिली जमानत, शिक्षा व परीक्षा घोटाले और जदयू-राजद-कांग्रेस के नेताओं के आपत्तिजनक आचरण के कई मामले सामने आए। इससे सरकार की बड़ी किरकिरी हुई। इससे नीतीश कुमार आहत हुए हैं। उनकी अपनी स्वच्छ व राष्ट्रीय छवि को गढ़ने की राह में ये सभी रोड़े साबित हुए हैं। इसलिए नीतीश बड़ी सावधानी से अपनी अलग राह बनाते दिख रहे हैं। वे केंद्र की सत्ता से बिहार के लिए सहयोग चाहते हैं। वे जानते हैं कि बिहार विधानसभा में संख्या का गणित उनके पक्ष में है। वे चाहें तो महागठबंधन तोड़कर भाजपा के साथ भी सरकार बना सकते हैं। इसलिए वे बड़ी चालाकी से उस वैकल्पिक मार्ग पर नजर गड़ाए हुए हैं।

उधर, लालू को भी यह अहसास हो चुका है। उनके सामने यह चुनौती है कि नीतीश का साथ छूटने की स्थिति में उनके बेटों का राजनीतिक भविष्य दांव पर न लग जाए। इसलिए पिछले कुछ समय से अपने पक्के वोटरों को यह संदेश दे रहे हैं कि बदली परिस्थितियों में भी वे लालू का साथ न छोड़ें। वे जनता के बीच तेजस्वी को सीएम के रूप में पहले से पेश कर रहे हैं ताकि चुनाव में वोटर मानसिक रूप से इसके लिए तैयार रहें। सत्ता तोड़ने व जोड़ने के महारथी लालू प्रसाद आज की तारीख में कमजोर नहीं हैं। इस बात का अहसास वे नीतीश ही नहीं दूसरे दलों को भी दिला रहे हैं। यूपी चुनाव के बाद बिहार में राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं। अगर वहां भाजपा सत्ता में आती है तब तो नीतीश कुछ और समय महागठबंधन को चलाते रहने में भलाई समझ सकते हैं। लेकिन अगर भाजपा वहां हार जाती है तो नीतीश को साथ लेकर देश की राजनीति में आगे बढ़ने में दिलचस्पी लेगी। ऐसे में नीतीश अपनी शर्तों पर एनडीए का हिस्सा होंगे। इसमें बिहार के लिए विशेष मांगों के अलावा अपना कद व पद बढ़ाने की छूट की शर्त भी शामिल होगी। हालांकि फिलहाल ये अनुमान ही है, बिहार की राजनीति किस करवट बैठेगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।



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