Sunday, May 1, 2016

‘कन्हैया’ तेरी बंसी को बजने से काम !


जेएनयू में कथित देशद्रोही नारे लगाए जाने की घटना के बाद चर्चा में आए विवि छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार इस समय बिहार दौरे पर हैं। बिहार उनका अपना राज्य है। अब जेएनयू में लगे देशद्रोही नारों की घटना का मीडिया ट्रायल धीरे-धीरे मद्धिम पड़ता जा रहा है। इसके बावजूद कन्हैया चर्चित चेहरा बने हुए हैं। अपनी पटना यात्रा के दौरान उनके द्वारा लालू प्रसाद के पांव छूने का मामला हो, शराब पीने की आज़ादी पर दिया गया बयान हो या फिर किसी न्यूज़ चैनल को पक्षपाती कहने पर छिड़ी चर्चा हो, हर बात को ग़जब की तवज्जो दी जा रही है। बिहार के मीडिया के लिए तो फ़िलहाल न्यूज़ का मतलब काफी कुछ कन्हैया की चर्चा ही रह गया है। कन्हैया पर ज़ारी सियासत में कौन-कौन लोग अपनी राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं और इस सेंक की गर्मी कहां तक पहुंच रही है, आइए इसका आकलन करते हैं।

जेनएनयू में छात्र राजनीति करने वाले और एआइएसएफ छात्र संगठन से ताल्लुक रखने वाले कन्हैया बिहार के बेगूसराय के मूल निवासी हैं। बेगूसराय को कभी बिहार में वामपंथ का गढ़ कहा जाता था। आज भी उस गढ़ की गिरती दीवारें शानदार अतीत की गवाही देती हैं। कन्हैया को उसी मिट्टी से खाद पानी मिला है। इसलिए एक विशाल वामपंथी वृक्ष के प्रति लोगों की उम्मीदें काफी बढ़ गई हैं। खासकर वामपंथी नेताओं की वो पीढ़ी जो अब राजनीति में आख़िरी पड़ाव पर है और जिसने कन्हैया में अपना-अपना अवतार ढूंढना शुरू कर दिया है।

इस देश में मीडिया दुनिया के कई देशों से ज्यादा आज़ाद है। इसलिए कन्हैया की आज़ादी मांगे जाने की शैली मीडिया को बहुत पसंद आई। जो टीवी न्यूज़ चैनल और अख़बार कन्हैया के विरोध में उतरे उन्हें भी उनका आज़ादी मांगने का तरीका ही न्यूज़ आइटम लगा। अब जबकि कन्हैया बिहार आए हैं तो मीडिया उनके बिहारी राजनीति के संदर्भ को तलाशने में जुटा हुआ है। लालू के पांव छूने का मतलब कि कन्हैया वामपंथ भूल रहे हैं। शराब की आज़ादी पर बात करने का मतलब कि शराब व्यवसायियों के गुट ने उन्हे अपना नेता मान लिया, नीतीश सरकार की ओर से वीवीआईपी सुरक्षा मिलने का मतलब कि कन्हैया नीतीश के भावी सहयोगी बन गए, इत्यादि-इत्यादि बातें मीडिया में आ रही हैं। मीडिया के विश्लेषण पर लोगों के ज्ञान चक्षु कभी लेफ्ट तो कभी राइट की तरफ़ खुल रहे हैं। आंख सीधी खुले इसकी किसी को परवाह नहीं है। इस बीच कन्हैया की बंशी अनवरत् बजती जा रही है। 

इसमें कोई शक-सुबहा नहीं कि कन्हैया की बोलने की शैली बहुत अच्छी है। वे वामपंथ के नज़रिये से ग़रीब जनता की समस्याओं को समझकर तब उस पर बोलते हैं। इसमें भी कोई शंका नहीं कि अपनी मातृभूमि के प्रति वामपंथी सिद्धातों के तहत उनके मन में निष्ठा रही होगी। लेकिन इस देश में सब कुछ वामपंथ के चश्मे से न कभी देखा गया है और न ही कभी ऐसा समय आएगा। देश ही नहीं दुनिया अब घोर पूंजीवाद और उपभोक्तावाद की गोद में है। वामपंथ का आधार ज़बर्दस्त ढंग से खिसक चुका है। ऐसे में आज़ादी की जो परिभाषायें कन्हैया गढ़ रहे हैं वो सबको पसंद नहीं आ रही हैं।

मेरा मानना है कि छात्रों के हित की बात करने वाले एक प्रतिभावान युवा कन्हैया का इस देश के राजनेताओं ने अपने लिए इस्तेमाल किया है। उनकी ऊर्जा को अलग-अलग दिशाओं में खर्च कराकर उनकी शक्ति क्षीण की जा रही है। इस देश में मीडिया में बने रहने की आभा ऐसी है जो बड़े बड़े लोगों की आंखें चुंधिया देती हैं। कन्हैया इसके अपवाद नहीं हो सकते। कन्हैया निश्चित तौर पर वामपंथ के पुरोधा हैं। लेकिन आख़िर कन्हैया वो सम्मान क्यों नहीं पा सके जो जेएनयू के ही एक अन्य छात्र नेता चंद्रशेखर को मिला। चंद्रशेखर इस दुनिया में नहीं होने के बावजूद न सिर्फ वामपंथी धारा बल्कि बिहार के जनमानस में भी वर्षों से ज़िंदा हैं. कन्हैया को मीडिया के तिलस्म और राजनीतिक आभा मंडल में पड़ने के बजाए छात्रों-युवाओं के बीच देश को तरक्की की दिशा देने का लक्ष्य रखना चाहिए। ऐसे में उनके समर्थक देश के हर वर्ग के युवा बनेंगे। बिहार में उनका फिलहाल पदार्पण उन परिस्थितियों में हुआ है जब यहां नीतीश को पीएम मैटेरियल और तेजस्वी को सीएम मैटेरियल बनाए जाने की चर्चायें गर्म हैं। ऐसे में राजनेता कन्हैया को भी अपने लिए राजनीतिक रा मैटेरियल न बना लें, ये आशंका है।

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