Wednesday, January 25, 2017

यूपी का मोह छोड़, भाजपा के मोहपाश में नीतीश

पीएम नरेंद्र मोदी व बिहार के सीएम नीतीश कुमार (साभार फाइल फोटो)
नीतीश कुमार की पार्टी जदयू यूपी में विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेगी। कई महीनों की तैयारी के बाद अचानक यह घोषणा कार्यकर्ताओं को अचंभे में डाल रही है। नीतीश कुमार ने पूर्वी यूपी में अपने जनाधार को बढ़ाने के लिए कई सभाएं की थीं। वे मुलायम और अखिलेश के झगड़े में खुले तौर पर अखिलेश के समर्थन में उतर आए थे। अभी हाल तक कहा गया था कि जदयू सपा-कांग्रेस गठबंधन में शामिल होगा। लेकिन संसाधनों की कमी की बात कहकर चुनाव न लड़ने की घोषणा के विशुद्ध राजनीतिक मायने दिख रहे हैं। इस घोषणा का संबंध कांग्रेस व लालू से सांकेतिक दूरी बनाकर अपनी अलग छवि गढ़ने व भाजपा से नजदीकियां बढ़ाने से है। आइए इसका विश्लेषण करते हैं।


नीतीश कुमार ने पिछले महीनों में यूपी में जितनी भी सभाएं की थीं वह केवल जदयू की तरफ से थीं। उन्होंने लालू व कांग्रेस को उनमें शामिल नहीं किया था। तत्काल कहा गया कि यह नीतीश की राष्ट्रीय छवि गढ़ने की कवायद है। बाद में यूपी में अखिलेश व मुलायम का झगड़ा हुआ। इसमें लालू प्रसाद ने समधी मुलायम का समर्थन किया। नीतीश ने तब अखिलेश के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। यह संकेत था कि वे यूपी में लालू से हर हाल में दूरी बनाकर काम करना चाहते हैं। फिर परिस्थितियां बदलीं। अखिलेश मुलायम पर भारी पड़ गए। ऐसे में लालू ने नीतीश के स्टैंड पर चलते हुए अखिलेश का समर्थन किया। परिस्थितियां फिर बदलीं और बाप-बेटे में बेटे की शर्त पर समझौता हो गया। अब पूरी समाजवादी पार्टी कांग्रेस से गठबंधन कर रही थी जिसका लालू भी समर्थन कर रहे थे। तब नीतीश ने एक झटके से यूपी में चुनाव न लड़ने की घोषणा कर सबको चौंका दिया। यह स्पष्ट संकेत है कि वे किसी भी हाल में लालू व कांग्रेस के साथ नहीं जाना चाहते।

इस राजनीतिक खेल का एक दूसरा पक्ष भी है। नीतीश कुमार ने कई मौकों पर पीएम नरेंद्र मोदी व केंद्र सरकार के कामकाज की तारीफ की है। कांग्रेस जब नोटबंदी पर मोदी को घेर रही थी तब लालू भी केंद्र को घेर रहे थे। ठीक उसी समय नीतीश ने नोटबंदी का समर्थन करते हुए विपक्ष के आंदोलन में शामिल होने से इनकार कर दिया। उसके बाद वे केंद्र व मोदी पर आक्रामक नहीं हुए। यह संकेत है कि वे राजनीति की लंबी पारी खेलने का मन बना चुके हैं। वे शराबबंदी पर मोदी की तारीफ बटोर चुके हैं। वे केंद्र की सहायता से अपनी नीतियों को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने के इच्छुक दिखते हैं। ऐसे में विरोध न सही लेकिन कांग्रेस व लालू से सांकेतिक दूरी बनाकर रहना चाहते हैं। नीतीश जानते हैं कि भाजपा उनकी 17 साल तक सहयोगी रही है। वह आक्रामकता छोड़कर दलितों-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की बात करने लगी है। ऐसे में भाजपा उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति में सहयोगी हो सकती है। वर्ष 2019 के लोकसभा व 2020 के विधानसभा चुनाव में उनके लिए भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए सबसे उपयुक्त सहयोगी हो सकता है।

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