Sunday, March 12, 2017

यूपी में भाजपा की जीत से बिहार में मजबूत हुए नीतीश

नीतीश कुमार (साभार फाइल फोटो)
उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रचंड जीत से बिहार में नीतीश कुमार ज्यादा मजबूत हुए हैं। सुनने में बात थोड़ी अटपटी जरूर लगती है लेकिन यह बिल्कुल सही है। यह मजबूती उनके महागठबंधन के सहयोगियों लालू व कांग्रेस के मुकाबले में है। यूपी में हार के बाद कांग्रेस का मनोबल गिरा है। वहीं लालू प्रसाद भाजपा की जीत से निराश हुए हैं। हालांकि देश में बड़ी जीत के बाद उभर कर आई भाजपा अब नीतीश को उनकी शर्तों पर तवज्जो नहीं देगी, जिसकी उम्मीद उन्हें यूपी में भाजपा की छोटी जीत या फिर त्रिशंकु राजनीति में उलझने से होती। देश में अब जो राजनीतिक परिस्थियां बनी हैं उसमें इसके स्पष्ट संकेत मिले हैं कि नीतीश कुमार नए राजनीतिक समीकरण की ओर बढ़ रहे हैं। राजनीतिक पंडितों ने इन समीकरणों की चर्चा शुरू कर दी है। आइए जानते हैं कि 2019 के लोकसभा व 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के लिए कैसे हो सकते हैं नए राजनीतिक समीकरण।



लोकसभा चुनाव हारने के बाद नीतीश कुमार के नेतृत्व में देश में भाजपा के खिलाफ एक नया मोर्चा सामने आया था। इसमें वैसे सभी नेता शामिल थे जिनके राजनीतिक अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा था। बिहार को केंद्र में रखकर इसमें देश के कई समाजवादी नेताओं को शामिल किया गया था। इसी के तहत लालू व कांग्रेस नीतीश के साथ आए थे। इसका सुखद परिणाम भी मिला। बिहार में भाजपा बुरी तरह हार गई। उसकी हार ने नीतीश व लालू के राजनीतिक अस्तित्व को बचाने में मदद की तो कांग्रेस को भी संजीवनी मिल गई। हालांकि लाख कोशिशों के बाद भी भाजपा के खिलाफ यह मोर्चा बिहार से आगे नहीं बढ़ सका। नीतीश कुमार की इस मोर्चे के सहारे अपनी राष्ट्रीय छवि गढ़ने व नरेंद्र मोदी के मुकाबले में खुद को खड़ा करने की कोशिश नाकाम साबित हो गई। उधर, बिहार की हार से सीख लेते हुए भाजपा ने न सिर्फ अपनी रणनीति में परिवर्तन किया बल्कि केंद्र की ओर से कई कड़े व सुधारवादी कदम उठाए। इससे वह मजबूत बनकर उभरी।

इधर, नीतीश कुमार ने भी अपनी राष्ट्रीय छवि गढ़ने की चिंता में नई सोच व रणनीति अपनाई। उन्होंने मोदी के खिलाफ कड़े रुख को त्याग दिया। वे बिहार में महागठबंधन सरकार चलाने के बावजूद लालू व कांग्रेस के स्टैंड से अलग दिखने लगे। उन्होंने कभी नोटबंदी की प्रशंसा की तो कई बार केंद्र के फैसलों के खिलाफ लालू व कांग्रेस के संयुक्त आंदोलन से खुद को अलग कर नया संदेश दिया। बड़ी तैयारी करने के बावजूद वे अंतिम समय में यूपी चुनाव से अलग हो गए। हालांकि वे समय-समय पर विपक्ष की अपनी भूमिका में भी फिट दिखे। अब यूपी का चुनाव परिणाम आया है तो उन्होंने अपने बयान में यह कहा है कि विपक्ष को नोटबंदी का विरोध नहीं करना चाहिए था। नीतीश के इस अलग स्टैंड पर राजद नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने शुरू से ही तल्ख टिप्पणी की है। वे यह कहने में भी गुरेज नहीं कर रहे हैं कि नीतीश परोक्ष रूप से भाजपा का समर्थन कर रहे हैं।

तो क्या नीतीश परोक्ष रूप से भाजपा का समर्थन कर रहे हैं? दरअसल नीतीश अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा व जनता के बीच बनी विकासवादी छवि बचाए रखने के लिए यह कवायद कर रहे हैं। पिछले एक-डेढ़ साल में उन्हें यह महसूस हो गया है कि अपने क्षेत्रीय दल जदयू के बूते वे पीएम की कुर्सी तक नहीं पहुंच सकते हैं। उनकी सहयोगी कांग्रेस बेहद कमजोर हुई है। भाजपा के खिलाफ मोर्चा बनाने का सपना पहले ही दम तोड़ चुका है। इधर, बिहार में लालू प्रसाद की छवि अब भी नीतीश की कार्यशैली के अनुरूप नहीं बन सकी है। महागठबंधन सरकार बनने के बाद सूबे में अपराध का ग्राफ तेजी से बढ़ा। दरभंगा का दोहरा इंजीनियर हत्याकांड, निर्माण कंपनियों से कई स्थानों पर रंगदारी की मांग, बिहार सरकार की कमजोर पैरवी से शहाबुद्दीन को जमानत मिलने, इंटर टॉपर घोटाले व बीएसएससी पेपर लीक कांड जैसे बड़े मामले सामने आए। इससे सरकार की बहुत किरकिरी हुई। लोगों में यह संदेश जाने लगा कि नीतीश कुमार अपराध के आगे बेबस होते जा रहे हैं। वे लालू के दबाव में काम कर रहे हैं। ऐसे में नीतीश अपनी साख बचाए रखने को व्याकुल होने लगे। परिणाम स्वरूप उन्होंने अपना स्टैंड बदल दिया।


ये सारी परिस्थितियां नीतीश को नए समीकरण की ओर ले जाने लगीं। यूपी चुनाव में अगर भाजपा थोड़ी भी कमजोर होती तो नीतीश उसके साथ मोलभाव कर सकते थे। वे अपनी शर्तों पर भाजपा के साथ जा सकते थे। बिहार में महागठबंधन के बजाए एनडीए की सरकार बनने की संभावना भी बन सकती थी। लेकिन यूपी की प्रचंड जीत ने जहां नीतीश को अपने सहयोगियों के मुकाबले मजबूती दिलाई है वहीं भाजपा के आगे उन्हें कमजोर भी किया है। ऐसे में नीतीश अब थोड़ा इंतजार करने की रणनीति पर चल सकते हैं। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले उन्हें हर हाल में अपना स्टैंड तय करना होगा कि वे महागठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे या फिर अपने पुराने गठबंधन एनडीए के साथ फिर से रिश्ता जोड़ेंगे। राजनीतिक पंडित ये मानते हैं कि नीतीश अपनी महत्वाकांक्षा के लिए कोई बड़ा फैसला कर सकते हैं।

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