Saturday, July 22, 2017

बिहारः कितनी बची है नीतीश-लालू-कांग्रेस के महागठबंधन की मियाद

नीतीश, राहुल व सोनिया (साभार फाइल फोटो)
बिहार में महागठबंधन पर जारी महाभारत फिलहाल थमा हुआ है. सोनिया गांधी के हस्तक्षेप के बाद अभी यथास्थिति बनी हुई है. लालू फिलहाल चारा घोटाले के केस की सुनवाई में पटना-रांची एक किए हुए हैं. तेजस्वी बेनामी संपत्ति मामले में सीबाआइ के चंगुल से निकलने के लिए वकीलों की राय लेने दिल्ली रवाना हो रहे हैं. इन सबसे अलग नीतीश कुमार अपना कद और वजन लगातार चेक कर रहे हैं. हम देह के नहीं राजनीतिक कद और वजन की बात कर रहे हैं. फिलहाल वे दिल्ली में पीएम नरेंद्र मोदी के भोज के लिए निकले हैं. इन दिनो एक सवाल बिहार की राजनीति पर मंथन करने वालों के जेहन में उमड़-घुमड़ रहा है- आखिर महागठबंधन की मियाद कितनी बची है.
नीतीश व पीएम नरेंद्र मोदी (साभार फाइल फोटो)
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आज की तारीख में एक ऐसे नेता हैं जिन्हें हर खेमा अपने पाले में लाने की कोशिश में है. कांग्रेस उन्हें अपने पाले से निकलने नहीं देना चाहती तो भाजपा उन्हें जल्द से जल्द अपने खेमे में वपस लाने को आतुर है. लेकिन दोनो की अपनी मजबूरियां हैं. कांग्रेस नेहरू परिवार के वारिस राहुल गांधी को प्रमोट कर 2019 के लिए पीएम उम्मीदवार बनाना चाहती है तो भाजपा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मजबूती से अगला लोकसभा चुनाव लड़ना चाहती है. नीतीश को पाले में करने का मतलब है उनकी महत्वाकांक्षाओं को सम्मान देना. यही वह पेच है जिसके फंसे रहने की वजह से नीतीश भी दुविधा में हैं. 

लालू व नीतीश (साभार फाइल फोटो)
नीतीश ऐसे नेता हैं जिनकी अकेले राजनीतिक हैसियत बहुत कम है. लेकिन उनकी साफ-सुथरी छवि, विकास की मानसिकता और परिवारवाद से मुक्त रहना जनता को लुभाता है. वे चुनाव में अकेले भले ही बहुमत जुटाने लायक सीटें नहीं नहीं ला सकते लेकिन जिस पाले में चले जाएं उसकी जीत की गारंटी बन जाते हैं. इसी छवि ने उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को भी बढ़ा रखा है. वे देश का पीएम बनना चाहते हैं. लेकिन जदयू के छोटा दल होने की वजह से ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है. ऐसे में उनकी कोशिश राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को एकजुट कर उसका नेतृत्व करने की है. जो कई कोशिशों के बाद भी संभव नहीं हो सकी. उनकी छटपटाहट बिहार में सत्ता बचाए रखने की भी है. क्योंकि वे जानते हैं कि जब तक सत्ता में हैं तब तक ही उनकी पूछ है. बाद में वे भी कई बड़े नेताओं की तरह गुमनाम हो सकते हैं. अपनी महत्वाकांक्षा की वजह से ही उन्होंने भाजपा के साथ 17 साल पुराना संबंध तोड़कर उस लालू के साथ गठबंधन कर लिया जिनके खिलाफ लड़कर वे सत्ता में आए थे.

अब महागठबंधन से अलग होकर वे भाजपा के साथ अपनी शर्तों पर जाना चाहते हैं. दूसरी तरफ महागठबंधन में बने रहने की भी उनकी अपनी शर्तें हैं. वे जानते हैं कि भाजपा उन्हें वापस लेना चाहती है. लेकिन इस बार वे केवल बिहार के सीएम की कुर्सी तक सीमित नहीं रहना चाहते. वे भाजपा से कई बड़े सौदे करना चाहते हैं. पीएम की कुर्सी न सही लेकिन केंद्र की सरकार में बड़ी औकात, एनडीए में बड़ा पद और बिहार को विशेष राज्य का दर्जा समेत कई शर्तें हैं. वे खुद की राष्ट्रीय छवि गढ़ने और राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप करने जितनी औकात चाहते हैं. संभव है कि भाजपा देर सवेर नीतीश की शर्तों को मान ले और वे एनडीए के पाले में चले जाएं. ऐसे में 2019 के चुनाव के पहले महागठबंधन का टूटना तय माना जा रहा है.

नीतीश का दूसरा विकल्प महागठबंधन का विस्तार बिहार से बाहर राष्ट्रीय स्तर पर करने का है. वे चाहते हैं कि देश में भाजपा विरोधी सभी पार्टियों को एक मंच पर लाया जाए. वे महागठबंधन का नेतृत्व करें. कांग्रेस के सामने इसमें दो समस्याएं हैं. वह अपनी परिधि से निकलना नहीं चाहती है. राहुल गांधी को पीएम प्रत्याशी बनाना चाहती है. उसे डर है कि अगर महागठबंधन का नेतृत्व नीतीश कुमार करेंगे तो जीत की स्थिति में देश की सत्ता उसे न मिलकर नीतीश के पास चली जाएगी. दूसरी चुनौती भाजपा विरोधी दलों को एक मंच पर लाकर एकजुट रखने की भी होगी. भाजपा फिलहाल सत्ता में है और वह मुलायम सिंह यादव की सपा, डीएमके, एआइडीएमके, बीजू जनता दल व रालोद जैसे क्षेत्रीय दलों को थोड़ी कवायद के बाद अपने पाले में आसानी से ला सकती है. ऐसे में विपक्ष की एकजुटता संदिग्ध है. इधर बिहार में लालू प्रसाद की नकारात्मक छवि उहें चुनाव में नुकसान पहुंचा सकती है. हो सकता है कि वे लालू के सात चुनाव लड़कर भाजपा से जीत न पाएं. नीतीश कुमार इन सारी परिस्थितियों पर गंभीरता पूर्वक और धैर्य के साथ विचार कर रहे हैं. लेकिन 2019 के पहले उन्हें एक फैसला करना ही होगा. ज्यादा संभावना इस बात की है कि वे एनडीए के पाले में चले जाएंगे. वैसे वक्त ही बताएगा कि नीतीश क्या निर्णय लेते हैं.

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