Thursday, July 27, 2017

बिहारः भाजपा का लालू परिवार पर वार, अबकी बार आर या पार !

तेजस्वी, लालू व राबड़ी (साभार फाइल फोटो)
करीब चार साल बेदखल रहने के बाद आखिरकार भाजपा बिहार में सत्ता में वापस आ गई है. इस बार उसे सीधे लालू से पंगा लेना पड़ा. उसने भ्रष्टाचार पर वार के बहाने नीतीश को अपने खेमे में करने की कवायद शुरू की. उसने नीतीश को एनडीए में लौटने की वजह दी या कहें कि मजबूर किया. लालू का परिवार भ्रष्टाचार के आरोपों में बुरी तरह घिर चुका है. भाजपा की रणनीति उसे किसी भी तरह से इस चक्रव्यूह से निकलने से रोकने की होगी. लालू, राबड़ी, मीसा, तेजस्वी समेत परिवार का हर महत्वपूर्ण सदस्य कानूनी तौर पर फंस चुका है. उनका इससे निकल पाना बेहद मुश्किल है. हालांकि मामले का दूसरा पक्ष यह भी है कि सारे आरोपों के बावजूद लालू का जनाधार बिहार में कम नहीं हुआ है. पिछले कई उदाहरण हैं जिनमें वे संकट से निकलकर फिर से सत्ता में आते रहे हैं.


सुशील मोदी व नीतीश (साभार फाइल फोटो)
2014 के लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से केंद्र की सत्ता में आई भाजपा को अगले ही साल बिहार विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था. इसकी सबसे बड़ी वजह नीतीश का लालू की पार्टी राजद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ना था. लालू को एक बार फिर जीवनदान मिल चुका था. इसकी उम्मीद भाजपा ने नहीं की थी. हालांकि उसे इसका अनुमान था कि यह गठबंधन बेमेल है और सत्ता के लिए अवसरवादिता के तहत किया गया है. बिहार में हार का परिणाम केंद्र में देखने को मिला, जब यह कहा जाने लगा कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी नाकामयाब हो रही है. उसके बाद सामने थे देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव. भाजपा ने उसके पहले कई दांव खेले. नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक व भ्रष्टाचार पर कड़ी कार्रवाई का कानून आदि. उसे इसका फायदा मिला. उत्तर प्रदेश में रिकॉर्ड बहुमत से उसकी सरकार बन गई. उत्साहित भाजपा ने बिहार पर फिर से नजरें गड़ाईं. झारखंड में लालू पर चारा घोटाले के केस की सुनवाई लगातार चल ही रही थी कि मीसा और चंदा पर बेनामी संपत्ति अर्जित करने का मामला दर्ज हो गया. तेजस्वी भी रेलवे के होटल टेंडर घोटाले के लपेटे में आ गए. सीबीआइ ने सभी पर प्राथमिकी दर्ज कर दी. लालू परिवार पर शिकंजा धीरे-धीरे कसने लगा.

राबड़ी व लालू (साभार फाइल फोटो)
उधर, नीतीश को लालू के साथ सत्ता में आने के तुरंत बाद इस बात का अहसास हो गया था कि लालू की कार्यशैली उनके अनुकूल नहीं है. सत्ता में आने के तुरंत बाद बिहार में हत्या, रंगदारी व अपहरण जैसे मामले सामने आने लगे थे. नीतीश के पास तत्काल उस गलती को सुधारने का कोई मौका नहीं था. वे इस उम्मीद में कांग्रेस के साथ आए थे कि विपक्ष उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर नेता घोषित करने की तरफ बढ़ेगा. उन्होंने कांग्रेस समेत देश के कई राज्यों के विपक्षी नेताओं को एक मंच पर लाने की कोशिश शुरू की. लेकिन इसका कोई परिणाम नहीं निकला. तब उन्हें लगा कि वे गलत रास्ते पर चल रहे हैं. एनडीए में पीएम पद की गुंजाइश भले ही नहीं थी लेकिन सरकार में फैसले लेने की आजादी थी. लालू के जैसी दागदार छवि भी नहीं थी. नीतीश को भाजपा की कदम-कदम पर जीत भी अखर रही थी. बस फिर क्या था. महागठबंधन में रहते हुए भी उन्होंने अपनी अलग राह अख्तियार करनी शुरू कर दी. कई मौकों पर पीएम मोदी की तारीफ की. सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केंद्र के फैसलों को सराहा. राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को वोट दिया. उनके सामने 2019 का लोकसभा चुनाव था. उन्हें लगने लगा कि लालू और लगातार कमजोर हो रही कांग्रेस के साथ मिलकर वे लोकसभा चुनाव लड़े तो जीत नहीं पाएंगे. बस वे महागठबंधन से निकलने के बहाने तलाशने लगे. भाजपा ने उन्हें भरपूर मौका दिया और आखिरकार वे निकल गए.

लालू प्रसाद (साभार फाइल फोटो)
अब बिहार की सत्ता या यूं कहें कि ताकत से बेदखल हो चुके लालू बेहद मुश्किल में हैं. केंद्र में बैठी भाजपा की सरकार उन्हें कोई छूट देने के मूड में नहीं है. सीबीआइ ने प्राथमिकी दर्ज करने के बाद चार्जशीट की तैयारी कर ली है. ऐसा लगता है कि बहुत जल्द लालू परिवार के सदस्यों के जेल जाने की नौबत आ सकती है. लालू को जब यह लगने लगा कि सत्ता हाथ से जा सकती है तो उन्होंने भी आर-पार करने की ठान ली. वे जनता के पास जाने को तैयार होने लगे. आज की तारीख में भी लालू का जनाधार उनका सबसे बड़ा रक्षा कवच है. जब-जब वे मसीबतों में घिरे हैं उन्हें उनके जनाधार ने ही बचाया है. लेकिन इस बार सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि लोकसभा चुनाव में अभी दो साल और बिहार विधानसभा चुनाव में तीन साल से ज्यादा की देरी है. हाथ धोकर उनके पीछे पड़ी भाजपा उन्हें राजनीतिक तौर पर बर्बाद कर देना चाहती है. देखना होगा कि इस बार वे इन मुश्किलों से कैसे निकल पाते हैं.



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