Tuesday, April 19, 2016

अबकी बार बिहार में नहीं चलेगा 'एमपी' और 'एसपी' का राज !

बिहार देश का ऐसा पहला राज्य था जिसने पंचायत चुनाव में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था लागू की थी। सीएम नीतीश कुमार के लिए ये एक ऐसा सपना था जिसे पूरा करना उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती थी। बिहार में इसे महिला सशक्तीकरण की दिशा में बड़ी पहल कहा गया था। हालांकि देश के कई राजनीतिक पंडितों ने तब आशंका जताई थी। महिला सशक्कतीकरण के मामले में किसी बड़ी सफलता की उम्मीद से बहुत सहमति नहीं जताई गई थी क्योंकि बिहार में महिलाओं की शिक्षा और साक्षरता दर काफी कम रही है। विश्लेषकों का मानना था कि आरक्षण का फायदा महिलाओं को नहीं के बराबर मिलेगा, बल्कि पुरूष ही उनके कंधों पर बंदूक रखकर चलाएंगे। इस तरह ये आरक्षण कहीं छलावा साबित न हो। राजनीतिक पंडितों की दलीलें शुरूआती वर्षों में सही भी लगी थीं। लेकन जैसे-जैसे समय बीतता गया बिहार में महिला आरक्षण की वज़ह से ग्रामीण क्षेत्रों में बदलाव का नज़ारा दिखने लगा। ये नज़ारा विकास का कुछ कम ही सही लेकिन महिलाओं की उभरती राजनीतिक ताक़त और सूझबूझ के रूप में ज़रूर दिखा।

वर्ष 2011 के पंचायत चुनाव में 50 फीसदी महिलायें मुखिया, सरपंच, पंचायत समिति सदस्य, ज़िला परिषद सदस्य, वार्ड सदस्य इत्यादि पदों के लिए प्रत्याशी बनकर चुनाव मैदान में उतरीं। पंचायत चुनाव प्रचार का दृष्य कुछ ऐसा था जिसे देखकर एक बार तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के फैसले पर कोफ्त होती थी। अगर कोई महिला किरण देवी किसी पंचायत से मुखिया प्रत्याशी बनीं थीं तो उनका चुनाव प्रचार उनके पति अपने नाम से कर रहे थे। पति के नाम और उनकी पहचान के बिना उस महिला प्रत्याशी की पहचान गौण थी। अधिकतर पंचायतों में तो महिला प्रत्याशी अपने चुनाव प्रचार में फ़ील्ड में निकलीं तक नहीं और जीत कर मुखिया जैसे पदों पर आ गईं। चुनाव परिणांम आने के बाद तो स्थिति और भी हास्यास्पद हो गई।बिहार में ‘एमपी’ और ‘एसपी’ नाम के दो नये नये अघोषित किंतु पॉवरफुल पद अस्तित्व में आ गए। पहले एमपी का मतलब सांसद और एसपी का मतलब पुलिस अधीक्षक समझा जाता था। लेकिन गांवों में अब ‘एमपी’ का अर्थ ‘मुखिया पति’ और ‘एसपी’ का मतलब ‘सरपंच पति’ ही ज्यादा प्रचलन में आ चुका था। ये एमपी और एसपी ही मुखिया और सरपंच के बदले लगभग सभी काम करते थे। हद तो तब हो गई जब ग्राम सभा से लेकर प्रखंड स्तरीय जन प्रतिनिधियों के सम्मेलन में भी एमपी और एसपी ही जाया करते थे। ऐसा नहीं था कि ये हाल सिर्फ अनपढ़ महिलाओं के मामले में था। दरअसल पढ़ी लिखी महिलाओं के मामले में भी बस दस्तखत तक अधिकतर महिला जन प्रतिनिधि करती थीं। बाकी के अधिकतर काम उनके पति ही निपटाते थे। कई बार ये लगता था कि बिहार के सीओ-बीडीओ और डीएम सरीखे अधिकारी तक इस व्यवस्था को मौन स्वीकृति दे चुके थे। ऐसा लग रहा था कि पंचायत में महिला आरक्षण बस छलावा साबित हो रहा है। लेकिन धीरे-धीरे इस स्थिति में बदलाव आया। बिहार के कई ज़िलों से ऐसे उदाहरण सामने आए जब महिला मुखिया और सरपंचों समेत कई जन प्रतिनिधियों ने अपने अपने क्षेत्रों में विकास का काम करके मिसालें कायम कीं।

बिहार में अनपढ़ पंचायत प्रतिनिधि महिलायें भी घरों की चहारदीवारी से निकलकर पंचायत के कामों में रूचि लेने लगीं। वे घर के कामकाज संभालतीं। चूल्हा चौका करतीं। बच्चों को संभालतीँ। खेतों में भी काम करतीं लेकिन अपने को पंचायत के कामों से सीधे जोड़ रही थीं। इसका कई महिलाओं को ख़ामियाजा भी भुगतना पड़ा। उन्हें पतियों की प्रताड़ना सहनी पड़ती थीं। लेकिन अब बिहार में बदलाव की झलक दिखने लगी थी। पतियों के फैसलों पर महिलायें सवाल उठाने लगीं थीं। हस्ताक्षर करने के पहले कई तरह की पड़ताल करने लगीं थीँ। आखिरकार ऐसा समय आ गया जब ग्राम सभा की बैठकों से लेकर प्रखंड और ज़िला स्तरीय सम्मेलनों मॆं भी महिला जन प्रतिनिधि अपनी सूझ बूझ दिखाकर अपनी आवाज़ बुलंद करने लगीं। पंचायतों के विकास में महिलाओं की भागेदारी भले ही कम दिख रही थी लेकिन राजनीतिक रूप से ग्रामीण बिहार की महिलाये सबल और सक्षम होने लगीं थीँ। हालांकि ये परिवर्तन अब भी शत प्रतिशत नहीं कहा जा सकता है। आज भी एमपी और एसपी चुनाव प्रचार में महिलाओं के ऊपर दिखते हैं लेकिन ये दृष्य कम होता जा रहा है।
वर्ष 2016 के पंचायत चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। कुछ समय बाद नई पंचायतें गठित हो जाएंगी। ज़िला परिषद जैसी कई संस्थाओं का पुनर्गठन हो जाएगा। लेकिन इस बार वर्ष 2011 के चुनाव के बाद सरीखा दृष्य कम दिखेगा। जिन महिलाओं ने पांच वर्षों तक पंचायतों की बागडोर संभाली हैं और अपने पतियों की दखलंदाज़ी में काम किया है वे अब खुद विकास की बागडोर संभालना चाहती हैं। हांलांकि आज भी ये शत प्रतिशत नहीं कहा जा सकता है कि पंचायती राज संथ्याओं में चुनकर आने वाली महिलायें पतियों की दखल से पूरी तरह मुक्त होंगी, लेकिन वर्ष 2011 के मुक़ाबले वे ज्यादा सबल बनकर ज़रूर उभरेंगी। इससे उम्मीद की एक किरण जगी है कि आने वाले वर्षों में बिहार की महिलायें महिला सशक्तीकरण की मिसाल पेश करेंगी।

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