Tuesday, April 19, 2016

पंचायत चुनाव पर हर राजनीतिक दल की नज़र, गांवों में पैठ बनाने की कोशिश

बिहार में पंचायत चुनाव दलीय आधार पर नहीं होते हैं लेकिन इन चुनावों पर हर राजनीतिक दल की नज़र होती है। दरअसल सूबे में राजनीतिक ज़मीन बढाने का मामला हो या फिर नई ज़मीन तलाशने की बात, हर दल के लिए पंचायत चुनाव सबसे बेहतर अवसर लेकर आते हैं। वर्ष 2016 के पंचायत चुनाव भी इससे अछूते नहीं हैं। यही वज़ह है कि हर दल इस चुनाव में अपने समर्थक प्रत्याशियों को ज्यादा से ज्यादा निर्वाचित कराना चाहता है। दरअसल यही निर्वाचित प्रत्याशी मुखिया, सरपंच, पंचायत समिति सदस्य और ज़िला परिषद सदस्य के रूप में पार्टियों के लिए निचले स्तर पर जनाधार बनाने से लेकर उनके वोट बैंक तक का मैनेजमेंट संभालने में मददगार होते हैं।
बिहार में फिलहाल महागठबंधन की सरकार है। महागठबंधन में शामिल प्रमुख दल राजद बिहार में ज़मीनी तौर पर सबसे मज़बूत माना जाता है। लालू प्रसाद के नेतृत्व वाला ये दल गांव के दबंग से लेकर सामान्य ग़रीब लोगों का प्रतिनिधित्व करने के लिए जाना जाता है। लालू खुद मानते हैं कि उनका जनाधार गांवों की नींव पर ही टिका है। इस पंचायत चुनाव में राजद की कोशिश होगी कि वो ज्यादा से ज्यादा वैसे पंचायत प्रतिनिधियों को जीत दिला सके जो वर्ष 2019 के लोकसभा और फिर उसके बाद के विधानसभा चुनाव में पार्टी का जनाधार बढ़ा सकें। भले ही महागठबंधन में जदयू और कांग्रेस भी शामिल हों लेकिन राजद ये चाहेगा कि अकेले इस चुनाव के माध्यम से वो अपने ख़ास समर्थकों का दबदबा कायम कर सके। 
उधर, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जदयू की बात करें तो कमोवेश वो भी मिशन 2019 को लेकर पंचायत चुनावों के माध्यम से अपनी स्थिति गांव-गांव में मज़बूत करना चाहता है। नीतीश के लिए तो ये सबसे ज़रूरी है क्योंकि वे 2019 में पीएम बनने का सपना संजोए हुए हैं। वे खुद चाहेंगे कि उनकी पार्टी के समर्थक मुखिया, सरपंच और अन्य पंचायत प्रतिनिधि ज्यादा से ज्यादा चुनकर आ सकें। इस लिहाज़ से ये पंचायत चुनाव उनके लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस महागठबंधन में शामिल होकर बिहार में सरकार चला रही है। हालांकि उसकी ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा पैठ नहीं है लेकिन वो भी इस मौके को भुनाकर गांवों में अपनी पैठ बनाना चाहेगी।

बात अगर भाजपा की करें तो वो बिहार के गांवों में आज भी अपनी पैठ राजद और जदयू की तुलना में ज्यादा नहीं बना पाई है। उस पर शहरी पार्टी होने का ठप्पा लगा हुआ है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में भाजपा ने भी जन जन तक अपनी पहुंच बनाने की कोशिश की है। इसलिए उसने देश में व्यापक सदस्यता अभियान चलाया और विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनकर उभरी। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा बिहार की सत्ता पर काबिज़ नहीं हो सकी। इसलिए ये पंचायत चुनाव उसके लिए भी एक सुनहरा मौका है। भाजपा चाहेगी कि इस चुनाव में ज्यादा से ज्यादा अपने समर्थक प्रत्याशियों को जीत दिलाकर अपनी पैठ बना सके।

बिहार की सत्ता में कभी कभार रहने वाली वामपंथी पार्टियां गांवों में जनाधार बनाने के मामले में आगे मानी जाती हैं। भाकपा, माकपा और भाकपा माले तीन ऐसे दल हैं जो बिहार में अपने कैडर वोट के लिए जाने जाते हैँ। ख़ास तौर पर भाकपा माले ने बिहार के गांवों में अपनी पैठ गहरी बनाई है। वामपंथी पार्टियां इसी ग्रामीण कैडर वाले वोट बैंक और जनाधार के बूते बिहार में अपना अस्तित्व बचा पाने में कामयाब रही हैं। इसलिए उनकी भी कोशिश होगी कि इन पंचायत चुनावों में वे अपने जनाधार को और ज्यादा मज़बूत बना सकें।

कुल मिलाकर बिहार के पंचायत चुनाव हर दल के लिए महत्वपूर्ण बन गए हैं। चुनाव प्रचार में भले ही कोई स्टार प्रचारक गांवों में नहीं पहुंचे, लेकिन पटना समेत सूबे के कुछ प्रमुख ज़िलों में बैठकर पार्टियों के नेता चुनाव में अपने समर्थकों को जीत दिलाने की रणनीति बनाने में लगे हैं। देखना होगा कि ये पंचायत चुनाव बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में किस दल की कितनी पैठ बना पाते हैं।

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